इमाम अली इब्ने मूसा अल-रज़ा (अ.स.) ने फ़रमाया:
“मुहर्रम वह महीना था जिसमें जाहिलियत के दौर के अरब खून बहाना हराम समझते थे, लेकिन इसी महीने में हमारा खून बहाया गया, हमारी हुरमत को पामाल किया गया, हमारे बच्चों और औरतों को क़ैद किया गया, हमारे ख़ैमो को जलाया गया और जो कुछ उनमें था उसे लूट लिया गया, और उन्होंने हमारे रसूल अल्लाह (स.अ.व.अ) से रिश्ते का भी लिहाज़ नहीं किया।”
बिहार अल-अनवार, जिल्द 44, सफ़ा 283
नोट:
▪︎ इमाम रज़ा (अ.स.) की इस हदीस से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यज़ीद इब्ने मुआविया, जिसने इमाम हुसैन (अ.स.) के क़त्ल का हुक्म दिया, कितना बेरहम और अमानवीय था।
▪︎ उसके सिपाही, जो खुद को रसूलुल्लाह (स.अ.व.अ) की उम्मत कहते थे, उन्होंने ही अपने नबी (स.अ.व.अ) के नवासे को शहीद कर दिया।
▪︎ अब फ़ैसला आपके हाथ में है कि जिस महीने में रसूलुल्लाह (स.अ.व.अ) के नवासे को शहीद किया गया, क्या आप उस महीने में यज़ीद का साथ देंगे — ख़ुशी, मुसर्रत और एक-दूसरे को मुबारकबाद देकर? या इंसानियत की ख़ातिर और रसूल (स.अ.व.अ) से हमदर्दी रखते हुए इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत पर ग़म मनाएंगे?