तमाम कायनात अल्लाह तआला की मिल्कियत है, और वह जो चाहता है करता है। उसकी ताक़त और इख़्तियार को कोई कम नहीं कर सकता। लेकिन अहम बात यह है कि अल्लाह ने मासूम इमामों (अलैहिमुस्सलाम) को अपनी तमाम नेमतों और बरकतों का वसीला मुक़र्रर किया है। इसी बुनियाद पर, मासूम इमाम (अलैहिमुस्सलाम) कायनात की किसी भी चीज़ के मालिक हो सकते हैं। हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम उन क़ाबिल-ए-एहतराम हस्तियों का तआरुफ़ हासिल करें, जिन्हें अल्लाह ने ज़मीन व आसमान पर इख़्तियार और ताक़त अता की है।
अगर हम एक खुशहाल ज़िंदगी गुज़ारना चाहते हैं और सही रास्ते पर क़ायम रहना चाहते हैं, तो यह ज़रूरी है कि हम सच्चाई और झूठ के बीच फ़र्क़ करें। ये क़ाबिल-ए-एहतराम हस्तियाँ अल्लाह की रज़ा और नाराज़गी का आईना हैं। इनकी खुशी में अल्लाह की खुशी है, और इनके ग़ुस्से में अल्लाह का ग़ुस्सा। अल्लाह की इताअत इनकी इताअत के ज़रिए की जाती है, और अगर इनकी नाफ़रमानी की जाए तो अल्लाह की नाफ़रमानी होती है। लिहाज़ा, हम पर इनका तआरुफ़ हासिल करना फ़र्ज़ है जो आख़िरकार हमारी कामयाबी और फ़लाह का सबब बनेगा।
हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (सलामुल्लाह अलैहा) का मर्तबा सिर्फ नेक होने से कहीं बढ़कर है
हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (सलामुल्लाह अलैहा) का मर्तबा सिर्फ नेकी से कहीं ज़्यादा है। हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व आलिही वसल्लम ने फ़रमाया:
“बेशक अल्लाह तआला खुश होता है जब फ़ातिमा खुश होती हैं और ग़ुस्से में आता है जब फ़ातिमा ग़ुस्सा होती हैं।”
(बिहार अल-अनवर , जि. 30, पृ. 353; अल-मुस्तदरिक अला अस-सहीहैन, जि. 3, पृ. 154; अल-मुअज्ज़म अल-कबीर, जि. 22, पृ. 401; सही बुख़ारी, जि. 5, पृ. 83)
यह रिवायत इस बात को स्पष्ट करती है कि हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (सलामुल्लाह अलैहा) का मर्तबा सिर्फ नेक होने से कहीं ऊँचा है। इफ़्फ़त (पाकदामनी) का मतलब यह है कि इंसान का हर अमल — उसकी रज़ा या नाराज़गी, खुशी और ग़ुस्सा — अल्लाह की रज़ा के मुताबिक़ होता है। वह अल्लाह की रज़ा में खुश होता है और अल्लाह के ग़ुस्से में ग़ुस्सा करता है। उसके आमाल अल्लाह की मर्ज़ी का अक्स होते हैं। लेकिन, हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (सलामुल्लाह अलैहा) के साथ ऐसा नहीं है, क्योंकि यहां अल्लाह उन चीज़ों पर खुश होता है जिन पर हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (सलामुल्लाह अलैहा) खुश होती हैं और नाराज़ होता है उन चीज़ों पर जिन पर वह नाराज़ होती हैं।
हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (सलामुल्लाह अलैहा) को पहचानना नामुमकिन है
हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व आलिही वसल्लम ने फ़रमाया: “फ़ातिमा को ‘फ़ातिमा’ इस लिए कहा गया क्योंकि तमाम मख़लूक़ उन्हें पहचानने में असमर्थ थी।” (बिहार अल-अनवर , जि. 43, पृ. 65)
इस रिवायत के अल्फ़ाज़ ग़ौर व फ़िक्र के क़ाबिल हैं। हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व आलिही वसल्लम ने तमाम मख़लूक़ पर ज़ोर दिया है, जिसमें अल्लाह के सिवा न सिर्फ़ इंसान, बल्कि अल्लाह की वही के मुअतबर, हज़रत जिब्राईल, हज़रत अज़राईल, दूसरे क़रीबी फ़रिश्ते, बड़े अंबिया, मुअज़्ज़िज़ पैग़ंबर और नाइबीन भी शामिल हैं। कितनी अज़ीम हस्ती होंगी जिन्हें हज़रत जिब्राईल जैसे मुअतबर फ़रिश्ते भी पूरी तरह नहीं समझ सकते? यहां तक कि अंबिया (अलैहिमुस्सलाम) भी उनकी हक़ीक़त को नहीं पहचान सकते। यह अज़ीम हस्ती सिर्फ़ अल्लाह के ज़रिए ही पूरी तरह समझी जा सकती है।
इस सिलसिले में आइए हम हज़रत रसूल-ए-ख़ुदा (सल्लल्लाहु अलैहि वआलिहि वसल्लम) की एक रिवायत पर ग़ौर करें:
“जब क़यामत के दिन अल्लाह के नुमाइंदे (पैग़ंबर) सफ़ों में खड़े होंगे, तो उस वक़्त हज़रत आदम (अलैहिस्सलाम) और दूसरे अंबिया (अलैहिमुस्सलाम) आप (फ़ातिमा ज़हरा स.अ.) की ज़ियारत के लिए आएंगे।”
(बिहार अल-अनवार, जिल्द 43, सफ़ा 22)
यक़ीनन यह कितना अज़ीम मुक़ाम है कि तमाम अंबिया (अलैहिमुस्सलाम) सफ़ों में खड़े होकर हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (सलामुल्लाह अलैहा) की ज़ियारत के लिए आएंगे। इंसानी अक़्ल इस अज़ीम बीबी को अल्लाह की तरफ़ से अता किए गए इस मक़ाम को पूरी तरह समझने से क़ासिर है। वाक़ई, उस ख़ातून की अज़मत को कौन समझ सकता है जिसकी ज़ियारत के लिए जन्नत में अंबिया (अलैहिमुस्सलाम) क़तार में आएंगे? जब इंसान ख़ुद अंबिया (अलैहिमुस्सलाम) के मक़ाम को समझने से क़ासिर है, तो उस हस्ती के रुत्बे को कैसे समझ सकता है जिसकी ज़ियारत के लिए अंबिया (अलैहिमुस्सलाम सफ़ में खड़े होंगे?