इमाम रज़ा (अ.स.) ने ख़बरदार किया:
“जो शख़्स आशूरा के दिन अपनी हाजतों को मांगना छोड़ दे, अल्लाह तआला उसकी दुनिया और आख़िरत की हाजतों को पूरा फरमा देगा। जिसके लिए आशूरा का दिन मुसीबत, ग़म और मातम का दिन हो, अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल क़ियामत के दिन को उसके लिए खुशी और राहत का दिन बना देगा, और हमारी वजह से उसकी आंखें जन्नत में ठंडी होंगी। (लेकिन) जो आशूरा को बरकत वाला दिन समझे और अपने घर में नई चीज़ें लाए, तो उन चीज़ों में कोई बरकत नहीं होगी। क़ियामत के दिन ऐसा शख़्स यज़ीद, उबैदुल्लाह इब्न ज़ियाद और उमर इब्न सअद (अल्लाह उन सब पर लानत करे) के साथ उठाया जाएगा, और जहन्नम के सबसे निचले दर्जे में होगा।”
[बिहार अल-अनवार, जिल्द 44, सफ़ा 284, हदीस 18 — शैख़ सदूक़ (र.अ.) की “अल-अमाली” से नक़ल]
इमाम रज़ा (अ.स.) की इस रिवायत की रौशनी में यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि आशूरा का दिन अहलुल बैत (अ.स.) के लिए शदीद ग़म का दिन है। कोई भी यह तसव्वुर नहीं कर सकता कि हमारे ज़माने के इमाम, हज़रत इमाम मेहदी (अ.ज.फ.श.) इस दिन किस कर्ब और दर्द से गुज़रते हैं, जब वो ज़ियारत-ए-नाहिया में फ़रमाते हैं: “मैं सुबह और शाम आपके ग़म पर रोता हूँ और आँसुओं की जगह खून बहाता हूँ।”
इसलिए इस दिन दुनियावी कामों में मसरूफ़ होना तो दूर, दुनिया के बारे में सोचना भी इमाम हुसैन (अ.स.) के अज़ादारों के लिए मुनासिब नहीं है। आइए, जितना मुमकिन हो, हमारी सोच, हमारी रूह और हमारा पूरा वजूद हज़रत अबा अब्दिल्लाह अल-हुसैन (अ.स.) के ग़म में डूबा रहे।
इमाम हुसैन (अ.स.) के सच्चे अज़ादार होने के नाते, हमें आशूरा का दिन इस तरह से गुज़ारना चाहिए कि हमारी आँखें आँसुओं से तर हों और हमारी ज़बान से बस यही दुआ निकले:
یَا رَبَّ الْحُسَیْنِ، بِحَقِّ الْحُسَیْنِ، اِشْفِ صَدْرَ الْحُسَیْن بِظُھُوْرِ الْحُجَّۃِ
ऐ हुसैन (अ.स.) के परवरदिगार! हुसैन (अ.स.) के हक़ के वास्ते, हुसैन (अ.स.) के दिल को इमाम मेहदी (अ.ज.फ.श.) के ज़ुहूर के ज़रिए तस्कीन अता फ़रमा!
आमीन या रब्बुल आलमीन!